ज्योतिष शास्त्र में वृश्चिक लग्न के पाँचवें भाव में धर्म, ज्ञान, और न्याय-नीति के अधिपति देवगुरु बृहस्पति की राशि मीन को स्थान दिया गया है। और मीन राशि कालपुरुष की कुंडली के बारहवें भाव यानी व्यय भाव में स्थित है। चूंकि कालपुरुष की कुंडली का व्यय भाव वृश्चिक लग्न या राशि के पाँचवें भाव में होता है, इसलिए इस लग्न के जातक या जातिका के पाँचवें भाव का व्यय निश्चित होता है।
पाँचवें घर से जुड़े विषयों के व्यय का अर्थ पाँचवे भाव के कारकत्व, अर्थात संतान, शिक्षा, ज्ञान, और प्रेम का व्यय माना जाता है। वृश्चिक लग्न के पाँचवें भाव का स्वामी बृहस्पति होता है और पाँचवे भाव का कारक भी बृहस्पति ही होता है। इसलिए वृश्चिक लग्न के पाँचवे भाव पर गुरु का अधिक प्रभाव होता है।
अब सवाल उठता है कि गुरु का अधिक प्रभाव होने के बावजूद वृश्चिक लग्न के कई जातकों को संतान प्राप्ति में देरी, संतानहीनता या संतान हानि जैसी घटनाएँ क्यों होती हैं?
इसका उत्तर यह है कि कालपुरुष की कुंडली के प्रभाव से वृश्चिक लग्न के पाँचवें भाव का व्यय होना सुनिश्चित है, जो ईश्वर ने पहले से ही निर्धारित कर रखा है। लेकिन अगर इस व्यय को समाज के कल्याण में लगाया जाए तो यह व्यय कभी दुखदायी नहीं होता, बल्कि सुख की वृद्धि करता है।
अगर धर्म, शिक्षा, ज्ञान और प्रेम का व्यय समाज के कल्याण में किया जाता है, तो पाँचवे भाव की हानि नहीं होती, बल्कि उसमें वृद्धि होती है। लेकिन अगर इस व्यय का दुरुपयोग किया जाए, जैसे कि धर्म के नाम पर पाखंड करना, या प्रेम के नाम पर छल करना, तो इसके परिणामस्वरूप पाँचवे भाव के किसी भी गुण की हानि होती है। जैसे कि संतान हानि, संतान प्राप्ति में विलंब, या संतानहीनता जैसी समस्याएँ हो सकती हैं।
इसलिए वृश्चिक लग्न के जातक और जातिकाएं अपने अर्जित ज्ञान और शिक्षा को ईश्वर द्वारा निर्देशित धर्म-कर्म में खर्च करके अपने पाँचवे भाव या संतान के भाव को मजबूत करें और मोक्ष प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त करें।
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